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युधिष्ठिर – सार्वभौम दिग्विजयी हिन्दूराष्ट्र निर्माता सम्राट भाग- २

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जहाँ तक युधिष्ठिर के द्यूत के व्यसन की बात है कि उन्हें इसके प्रति लगाव था यह सत्य हो सकता है क्योंकि महाभारत में ऐसे संकेत मिलते हैं पर इससे वे सदैव उचित दूरी बनाए रखने का प्रयत्न करते थे। फिर विधि का विधान सबसे प्रबल होता है। उन्हें किन परिस्थितयो में द्यूत खेलना पड़ा वह अवश्यम्भावी थी। शकुनि ने कई बार (स.प. द्यूतपर्व अ-48)उन्हें द्यूत प्रेमी कहा पर शकुनि की धूर्त वाणी को न मानें तो भी, स्वयं अर्जुन ने कर्णपर्व के 70वें अध्याय में युधिष्ठिर जी को 2 बार द्यूत जुआ का व्यसनी कहा है। यह वह प्रसङ्ग है जब अर्जुन युधिष्ठिर जी को सङ्कल्पपूर्ति हेतु कृष्णादेश के अनुसार अपमानित करते हैं। यहां मात्र अपमानित करने की ही शर्त थी असत्यभाषण की नहीं, यदि युधिष्ठिर को जुआ का तनिक भी प्रेम नहीं होता तो वे कभी उन्हें दो बार द्यूतव्यसनी कहकर लांछन न लगाते।

अर्जुन के वक्तव्य से आहत एवं प्रायश्चित्त की आग में जलते हुए युधिष्ठिर अपनी स्वनिन्दा करने लगते हैं, इसमें वे स्वयं को पापमय दुर्व्यसन में आसक्त कहकर धिक्कारते हैं, निश्चित रूप से यह एकमात्र जुआ के अतिरिक्त महाराज युधिष्ठिर के धवलतम चरित्र में दूसरा नहीं हो सकता। आज धर्मराज अपनी एकमात्र कमजोरी को खुलेमन से स्वीकार कर रहे हैं।

शास्त्रों में 438 प्रकार की कलाएं बताई हैं पर इनमें 64 प्रधान हैं। इन 64 कलाओं में से अधिकाधिक में राजा को निष्णात होना चाहिए। इसमें 8वें नम्बर की कला “द्यूत” है। चोरी करना और वेश्या सम्बन्धी ज्ञान लेना भी 64 कलाओं में शामिल है। उस समय द्यूत प्रधानविद्या थी, तब ही शास्त्र ने कहा “आहूतो न निवर्तेत द्यूतादपि रणादपि” यह तब बहुत प्रचलित थी, इसी वचन के कारण युधिष्ठिर द्यूत के लिए हाँ किए थे यह महाभारत में उन्होंने कई बार कहा है। द्यूत शिकार जैसी प्रचलित थी, अतः राजा के लिए यह स्वाभाविक भी था, वरना श्रीकृष्ण छल में स्वयं को द्यूत कहकर गीता में इसे इतना महत्त्व न देते।

एक बार तो द्यूत से हटकर वे सब इंद्रप्रस्थ तक जा पहुंचे थे तब धृतराष्ट्र का पुनः जुआ खेलने का निमंत्रण आ गया। तब युधिष्ठिर ने प्रारब्ध को प्रधान व कुरुकुल और समस्त लोक का नाश अवश्यम्भावी मानकर खुद को जुए में पुनः झोंक दिया। तब वैशम्पायन जी ने कहा है कि, पशु शरीर कभी स्वर्ण का नहीं होता तो भी श्रीराम लुभा गए उसी प्रकार पतन के निकट होने पर युधिष्ठिर जी की बुद्धि आज विपरीत हो गयी है।” वे शकुनि की माया को जानते हुए भी जुआ खेलने चल पड़े। तब भीष्म, द्रोण, विदुर, कृपाचार्य, संजय, पांडव, गांधारी, द्रौपदी, अश्वत्थामा तक युधिष्ठिर को रोक रहा था पर माया के वशीभूत होकर जुए से नहीं हटे। निश्चित ही राजाज्ञा का इतना ही महत्त्व होता तो ये सारे विद्वान वरिष्ठ उन्हें रोकते नहीं।

परन्तु अब देखिए, कुछ तो जगन्मोहिनी माया, दूसरा धर्माभास, तीसरा अवचेतन मन की दमित तृष्णा व सबसे महत्त्वपूर्ण पिता के भी ज्येष्ठ भाई पितृतुल्य राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा, शास्त्र का रण व द्यूत दोनों से ही पीछे न हटने का आदेश,  इन सबने खींचकर सम्राट युधिष्ठिर को जुए के मेज पर ला बैठाया। शकुनि की एक ही चाल ने सम्राट को वनवासी बना डाला। क्षात्रधर्म के आलोक में द्यूत का निमन्त्रण देकर एवं उसका अनुमोदन कर हस्तिनापुर ने पाप किया था इन्द्रप्रस्थ ने नहीं। कोई भी सम्पत्ति शेष रहने तक स्वयं धृतराष्ट्र ने द्यूतकर्म से निवृत्त होने का निषेध किया था। पिता से भी उच्च उनके बड़े भाई की आज्ञा का उल्लंघन युधिष्ठिर के लिए असम्भव था, अथवा द्यूत नियमों से भाइयों समेत उनका वध विधिसम्मत हो जाता। वास्तव में तो गीता में छल में स्वयं को द्यूत कहने वाले निरंकुश भगवान् श्रीकृष्ण ही यहाँ दुराचारी कौरवों से अक्षम्य पाप करवाकर युगपरिवर्तक महायुद्ध महाभारत की भूमिका बनाने हेतु द्यूत का अवश्यम्भावी खेल निर्मित कर रहे थे, जिससे कोई भी चाहकर भी नहीं हट सकता था।

युधिष्ठिर को पूर्व में द्यूत पर अधिकार नहीं था पर द्यूत पर अधिकार वे अवश्य करना चाहते थे। यह अवसर उन्हें वनगमन करते ही मिल गया, वनपर्व के 79वें अध्याय में युधिष्ठिर बृहदश्व ऋषि से द्यूत विद्या का यथार्थ रहस्य सिखाने का निवेदन करते हैं। वे मुनि युधिष्ठिर को द्यूतविद्या प्रदान करते हैं।

युधिष्ठिर धर्मराज/ यमराज थे, यही पूर्वजीवन में हरिश्चंद्र थे। गलत कार्य के कारण उन्हें महर्षि दुर्वासा का शाप मिला, इसी कारण हरिश्चंद्र व युधिष्ठिर को महान कष्ट मिला। महाराजा हरिश्चन्द्र को भी अपनी पत्नी एवं पुत्र को बेचना पड़ा था। धर्मराज की ही दूसरी मूर्ति महात्मा विदुर भी पूर्वजीवन में ऋषि अपमान के कारण मिले शाप के कारण शूद्र बने। अतः सम्राट युधिष्ठिर के धर्ममय तपोमय जीवन में भी द्यूत उसी तरह है जैसे चन्द्रमा के मुख पर दाग, दोष तो इन्द्र चन्द्र आदि में भी थे इसे स्वीकार करना चाहिए। प्रश्न तो मर्यादा पुरुषोत्तम पर भी उठा दिए जाते हैं। पर इससे युधिष्ठिर का सम्मान कम नहीं होता, धर्म की साक्षात मूर्ति थे। स्वयं महर्षि वेदव्यास ने उन्हें धर्मरूपी वृक्ष कहा है।

पर किसी भी परिस्थिति में पांडवों का चरित्रहनन गलत है। यह धर्म के सर्वोच्च प्रतीकों में हैं।

HinduRastra Nirmata Yudhishthira

Feature Image Credit: wikipedia.org

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